मूर्खलक्षण (दासबोध: दशक दुसरा-समास पहिला)

मूर्खलक्षण
                   ||श्रीराम ||
ॐ नमोजि गजानना| येकदंता त्रिनयना |
कृपादृष्टि भक्तजना अवलोकावें ||||
तुज नमूं वेदमाते| श्रीशारदे ब्रह्मसुते |
अंतरी वसे कृपावंते| स्फूर्तिरूपें ||||
वंदून सद्गुरुचरण| करून रघुनाथस्मरण |
त्यागार्थ मूर्खलक्षण| बोलिजेल ||||
येक मूर्ख येक पढतमूर्ख| उभय लक्षणीं कौतुक |
श्रोतीं सादर विवेक| केला पाहिजे ||||
पढतमूर्खाचें लक्षण| पुढिले समासीं निरूपण |
साअवध होऊनि विचक्षण| परिसोत पुढें ||||
आतां प्रस्तुत विचार| लक्षणें सांगतां अपार |
परि कांहीं येक तत्पर| होऊन ऐका ||||
जे प्रपंचिक जन| जयांस नाहीं आत्मज्ञान |
जे केवळ अज्ञान| त्यांचीं लक्षणें ||||
जन्मला जयांचे उदरीं| तयासि जो विरोध करी |
सखी मनिली अंतुरी| तो येक मूर्ख ||||
सांडून सर्वही गोत| स्त्रीआधेन जीवित |
सांगे अंतरींची मात | तो येक मूर्ख ||||
परस्त्रीसीं प्रेमा धरी| श्वशुरगृही वास करी |
कुळेंविण कन्या वरी| तो येक मूर्ख ||१०||
समर्थावरी अहंता| अंतरीं मानी समता |
सामर्थ्येंविण करी सत्ता| तो येक मूर्ख ||११||
आपली आपण करी स्तुती| स्वदेशीं भोगी विपत्ति |
सांगे वडिलांची कीर्ती| तो येक मूर्ख ||१२||
अकारण हास्य करी| विवेक सांगतां न धरी |
जो बहुतांचा वैरी| तो येक मूर्ख ||१३||
आपुलीं धरूनियां दुरी| पराव्यासीं करी मीत्री |
परन्यून बोले रात्रीं| तो येक मूर्ख ||१४||
बहुत जागते जन| तयांमध्यें करी शयन |
परस्थळीं बहु भोजन- | करी, तो येक मूर्ख ||१५||
मान अथवा अपमान| स्वयें करी परिच्छिन्न |
सप्त वेसनीं जयाचें मन| तो येक मूर्ख ||१६||
धरून परावी आस| प्रेत्न सांडी सावकास |
निसुगाईचा संतोष- | मानी, तो येक मूर्ख ||१७||
घरीं विवेक उमजे| आणि सभेमध्यें लाजे |
शब्द बोलतां निर्बुजे| तो येक मूर्ख ||१८||
आपणाहून जो श्रेष्ठ| तयासीं अत्यंत निकट |
सिकवेणेचा मानी वीट| तो येक मूर्ख ||१९||
नायेके त्यांसी सिकवी| वडिलांसी जाणीव दावी |
जो आरजास गोवी| तो येक मूर्ख ||२०||
येकायेकीं येकसरा| जाला विषईं निलाजिरा |
मर्यादा सांडून सैरा- | वर्ते, तो येक मूर्ख ||२१||
औषध न घे असोन वेथा| पथ्य न करी सर्वथा |
न मिळे आलिया पदार्था| तो येक मूर्ख ||२२.
संगेंविण विदेश करी| वोळखीविण संग धरी |
उडी घाली माहापुरीं| तो येक मूर्ख ||२३||
आपणास जेथें मान| तेथें अखंड करी गमन |
रक्षूं नेणे मानाभिमान| तो येक मूर्ख ||२४||
सेवक जाला लक्ष्मीवंत| तयाचा होय अंकित |
सर्वकाळ दुश्चित्त| तो येक मूर्ख ||२५||
विचार न करितां कारण| दंड करी अपराधेंविण |
स्वल्पासाठीं जो कृपण| तो येक मूर्ख ||२६||
देवलंड पितृलंड| शक्तिवीण करी तोड |
ज्याचे मुखीं भंडउभंड| तो येक मूर्ख ||२७||
घरीच्यावरी खाय दाढा| बाहेरी दीन बापुडा |
ऐसा जो कां वेड मूढा| तो येक मूर्ख ||२८||
नीच यातीसीं सांगात| परांगनेसीं येकांत |
मार्गें जाय खात खात| तो येक मूर्ख ||२९||
स्वयें नेणे परोपकार| उपकाराचा अनोपकार |
करी थोडें बोले फार| तो येक मूर्ख ||३०||
तपीळ खादाड आळसी| कुश्चीळ कुटीळ मानसीं |
धारीष्ट नाहीं जयापासीं| तो येक मूर्ख ||३१||
विद्या वैभव ना धन| पुरुषार्थ सामर्थ्य ना मान |
कोरडाच वाहे अभिमान| तो येक मूर्ख ||३२||
लंडी लटिका लाबाड| कुकर्मी कुटीळ निचाड |
निद्रा जयाची वाड| तो येक मूर्ख ||३३||
उंचीं जाऊन वस्त्र नेसे| चौबारां बाहेरी बैसे |
सर्वकाळ नग्न दिसे| तो येक मूर्ख ||३४||
दंत चक्षु आणी घ्राण| पाणी वसन आणी चरण |
सर्वकाळ जयाचे मळिण| तो येक मूर्ख ||३५||
वैधृति आणी वितिपात| नाना कुमुहूर्तें जात |
अपशकुनें करी घात| तो येक मूर्ख ||३६||
क्रोधें अपमानें कुबुद्धि| आपणास आपण वधी |
जयास नाहीं दृढ बुद्धि| तो येक मूर्ख ||३७||
जिवलगांस परम खेदी| सुखाचा शब्द तोहि नेदी |
नीच जनास वंदी| तो येक मूर्ख ||३८||
आपणास राखे परोपरी| शरणागतांस अव्हेरी |
लक्ष्मीचा भरवसा धरी| तो येक मूर्ख ||३९||
पुत्र कळत्र आणी दारा| इतुकाचि मानुनियां थारा |
विसरोन गेला ईश्वरा| तो येक मूर्ख ||४०||
जैसें जैसें करावें| तैसें तैसें पावाअवें |
हे जयास नेणवे| तो येक मूर्ख ||४१||
पुरुषाचेनि अष्टगुणें| स्त्रियांस ईश्वरी देणें |
ऐशा केल्या बहुत जेणें| तो येक मूर्ख ||४२||
दुर्जनाचेनि बोलें| मर्यादा सांडून चाले |
दिवसा झांकिले डोळे| तो येक मूर्ख ||४३||
देवद्रोही गुरुद्रोही| मातृद्रोही पितृद्रोही |
ब्रह्मद्रोही स्वामीद्रोही| तो येक मूर्ख ||४४||
परपीडेचें मानी सुख| पससंतोषाचें मानी दुःख |
गेले वस्तूचा करी शोक| तो येक मूर्ख ||४५||
आदरेंविण बोलणें| न पुसतां साअक्ष देणें |
निंद्य वस्तु आंगिकारणें| तो येक मूर्ख ||४६||
तुक तोडून बोले| मार्ग सांडून चाले |
कुकर्मी मित्र केले| तो येक मूर्ख ||४७||
पत्य राखों नेणें कदा| विनोद करी सर्वदा |
हासतां खिजे पेटे द्वंदा| तो येक मूर्ख ||४८||
होड घाली अवघड| काजेंविण करी बडबड |
बोलोंचि नेणे मुखजड| तो येक मूर्ख ||४९||
वस्त्र शास्त्र दोनी नसे| उंचे स्थळीं जाऊन बैसे |
जो गोत्रजांस विश्वासे| तो येक मूर्ख ||५०||
तश्करासी वोळखी सांगे| देखिली वस्तु तेचि मागे |
आपलें आन्हीत करी रागें| तो येक मूर्ख ||५१||
हीन जनासीं बरोबरी| बोल बोले सरोत्तरीं |
वामहस्तें प्राशन करी | तो येक मूर्ख ||५२||
समर्थासीं मत्सर धरी| अलभ्य वस्तूचा हेवा करी |
घरीचा घरीं करी चोरी| तो येक मूर्ख ||५३||
सांडूनियां जगदीशा| मनुष्याचा मानी भर्वसा |
सार्थकेंविण वेंची वयसा| तो येक मूर्ख ||५४||
संसारदुःखाचेनि गुणें| देवास गाळी देणें |
मैत्राचें बोले उणें| तो येक मूर्ख ||५५||
अल्प अन्याय क्ष्मा न करी| सर्वकाळ धारकीं धरी |
जो विस्वासघात करी| तो येक मूर्ख ||५६||
समर्थाचे मनींचे तुटे| जयाचेनि सभा विटे |
क्षणा बरा क्षणा पालटे| तो येक मूर्ख ||५७||
बहुतां दिवसांचे सेवक| त्यागून ठेवी आणिक |
ज्याची सभा निर्नायेक| तो येक मूर्ख ||५८||
अनीतीनें द्रव्य जोडी| धर्म नीति न्याय सोडी |
संगतीचें मनुष्य तोडी| तो येक मूर्ख ||५९||
घरीं असोन सुंदरी| जो सदांचा परद्वारी |
बहुतांचे उच्छिष्ट अंगीकारी| तो येक मूर्ख ||६०||
आपुलें अर्थ दुसऱ्यापासीं| आणी दुसऱ्याचें अभिळासी |
पर्वत करी हीनासी| तो येक मूर्ख ||६१||
अतिताचा अंत पाहे| कुग्रामामधें राहे |
सर्वकाळ चिंता वाहे| तो येक मूर्ख ||६२||
दोघे बोलत असती जेथें| तिसरा जाऊन बैसे तेथें |
डोई खाजवी दोहीं हातें| तो येक मूर्ख ||६३||
उदकामधें सांडी गुरळी| पायें पायें कांडोळी |
सेवा करी हीन कुळीं | तो येक मूर्ख ||६४||
स्त्री बाळका सलगी देणें| पिशाच्या सन्निध बैसणें |
मर्यादेविण पाळी सुणें| तो येक मूर्ख ||६५||
परस्त्रीसीं कळह करी| मुकी वस्तु निघातें मारी |
मूर्खाची संगती धरी| तो येक मूर्ख ||६६||
कळह पाहात उभा राहे| तोडविना कौतुक पाहे |
खरें अस्ता खोटें साहे| तो येक मूर्ख ||६७||
लक्ष्मी आलियावरी| जो मागील वोळखी न धरी |
देवीं ब्राह्मणीं सत्ता करी| तो येक मूर्ख ||६८||
आपलें काज होये तंवरी| बहुसाल नम्रता धरी |
पुढीलांचें कार्य न करी| तो येक मूर्ख ||६९||
अक्षरें गाळून वाची| कां तें घाली पदरिचीं |
नीघा न करी पुस्तकाची| तो येक मूर्ख ||७०||
आपण वाचीना कधीं| कोणास वाचावया नेदी |
बांधोन ठेवी बंदीं| तो येक मूर्ख ||७१||
ऐसीं हें मूर्खलक्षणें| श्रवणें चातुर्य बाणे |
चीत्त देउनियां शहाणे| ऐकती सदा ||७२||
लक्षणें अपार असती| परी कांहीं येक येथामती |
त्यागार्थ बोलिलें श्रोतीं| क्ष्मा केलें पाहिजे ||७३||
उत्तम लक्षणें घ्यावीं| मूर्खलक्षणें त्यागावीं |
पुढिले समासी आघवीं| निरोपिलीं ||७४||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे मूर्खलक्षणनाम
              समास पहिला ||||२. १

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