पढतमुर्ख लक्षण (दासबोध:दशक दुसरा-समास दहावा)

पढतमुर्ख लक्षण
                   ||श्रीराम ||
मागां सांगितलीं लक्षणें| मूर्खाआंगी चातुर्य बाणे |
आतां ऐका शाहाणे- | असोनि, मूर्ख ||||
तया नांव पढतमूर्ख| श्रोतीं न मनावें दुःख |
अवगुण त्यागितां , सुख- | प्राप्त होये ||||
बहुश्रुत आणि वित्पन्न| प्रांजळ बोले ब्रह्मज्ञान |
दुराशा आणि अभिमान| धरी, तो येक पढतमूर्ख ||||
मुक्तक्रिया प्रतिपादी| सगुणभक्ति उछेदी |
स्वधर्म आणि साधन निंदी| तो येक पढतमूर्ख ||||
आपलेन ज्ञातेपणें| सकळांस शब्द ठेवणें |
प्राणीमात्राचें पाहे उणें| तो येक पढतमूर्ख ||||
शिष्यास अवज्ञा घडे| कां तो संकटीं पडे |
जयाचेनि शब्दें मन मोडे | तो येक पढतमूर्ख ||||
रजोगुणी तमोगुणी| कपटी कुटिळ अंतःकर्णी |
वैभव देखोन वाखाणी| तो येक पढतमूर्ख ||||
समूळ ग्रंथ पाहिल्याविण| उगाच ठेवी जो दूषण |
गुण सांगतां अवगुण- | पाहे तो येक पढतमूर्ख ||||
लक्षणें ऐकोन मानी वीट| मत्सरें करी खटपट |
नीतिन्याय उद्धट| तो येक पढतमूर्ख ||||
जाणपणें भरीं भरे| आला क्रोध नावरे |
क्रिया शब्दास अंतरे| तो येक पढतमूर्ख ||१०||
वक्ता अधिकारेंवीण| वग्त्रृत्वाचा करी सीण |
वचन जयाचें कठीण| तो येक पढतमूर्ख ||११||
श्रोता बहुश्रुतपणें| वक्तयास आणी उणें |
वाचाळपणाचेनि गुणें| तो येक पढतमूर्ख ||१२||
दोष ठेवी पुढिलांसी| तेंचि स्वयें आपणापासीं |
ऐसें कळेना जयासी| तो येक पढतमूर्ख ||१३||
अभ्यासाचेनि गुणें| सकळ विद्या जाणे |
जनास निवऊं नेणें| तो येक पढतमूर्ख ||१४||
हस्त बांधीजे ऊर्णतंतें| लोभें मृत्य भ्रमरातें |
ऐसा जो प्रपंची गुंते| तो येक पढतमूर्ख ||१५||
स्त्रियंचा संग धरी| स्त्रियांसी निरूपण करी |
निंद्य वस्तु आंगिकारी| तो येक पढतमूर्ख ||१६||
जेणें उणीव ये आंगासी| तेंचि दृढ धरी मानसीं |
देहबुद्धि जयापासीं| तो येक पढतमूर्ख ||१७||
सांडूनियां श्रीपती| जो करी नरस्तुती |
कां दृष्टी पडिल्यांची कीर्ती- | वर्णी, तो येक
पढतमूर्ख ||१८||
वर्णी स्त्रियांचे आवेव| नाना नाटकें हावभाव |
देवा विसरे जो मानव| तो येक पढतमूर्ख ||१९||
भरोन वैभवाचे भरीं| जीवमात्रास तुछ्य करी |
पाषांडमत थावरी| तो येक पढतमूर्ख ||२०||
वित्पन्न आणी वीतरागी| ब्रह्मज्ञानी माहायोगी |
भविष्य सांगों लागे जगीं| तो येक पढतमूर्ख ||२१||
श्रवण होतां अभ्यांतरीं| गुणदोषाची चाळणा करी |
परभूषणें मत्सरी| तो येक पढतमूर्ख ||२२||
नाहीं भक्तीचें साधन| नाहीं वैराग्य ना भजन |
क्रियेविण ब्रह्मज्ञान- | बोले, तो येक पढतमूर्ख ||२३||
न मनी तीर्थ न मनी क्षेत्र| न मनी वेद न मनी शास्त्र |
पवित्रकुळीं जो अपवित्र| तो येक पढतमूर्ख ||२४||
आदर देखोनि मन धरी| कीर्तीविण स्तुती करी |
सवेंचि निंदी अनादरी| तो येक पढतमूर्ख ||२५||
मागें येक पुढें येक| ऐसा जयाचा दंडक |
बोले येक करी येक| तो येक पढतमूर्ख ||२६||
प्रपंचविशीं सादर| परमार्थीं ज्याचा अनादर |
जाणपणें घे अधार| तो येक पढतमूर्ख ||२७||
येथार्थ सांडून वचन| जो रक्षून बोले मन |
ज्याचें जिणें पराधेन| तो येक पढतमूर्ख ||२८||
सोंग संपाधी वरीवरी| करूं नये तेंचि करी |
मार्ग चुकोन भरे भरीं| तो येक पढतमूर्ख ||२९||
रात्रंदिवस करी श्रवण| न संडी आपले अवगुण |
स्वहित आपलें आपण| नेणे तो येक पढतमूर्ख ||३०||
निरूपणीं भले भले| श्रोते येऊन बैसले |
क्षुद्रें लक्षुनी बोले| तो येक पढतमूर्ख ||३१||
शिष्य जाला अनधिकारी| आपली अवज्ञा करी |
पुन्हां त्याची आशा धरी| तो येक पढतमूर्ख ||३२||
होत असतां श्रवण| देहास आलें उणेपण |
क्रोधें करी चिणचिण| तो येक पढतमूर्ख ||३३||
भरोन वैभवाचे भरीं| सद्गुरूची उपेक्षा करी |
गुरुपरंपरा चोरी| तो येक पढतमूर्ख ||३४||
ज्ञान बोलोन करी स्वार्थ| कृपणा ऐसा सांची अर्थ |
अर्थासाठीं लावी परमार्थ| तो येक पढतमूर्ख ||३५||
वर्तल्यावीण सिकवी| ब्रह्मज्ञान लावणी लावी |
पराधेन गोसावी| तो येक पढतमूर्ख ||३६||
भक्तिमार्ग अवघा मोडे| आपणामध्यें उपंढर पडे |
ऐसिये कर्मीं पवाडे| तो येक पढतमूर्ख ||३७||
प्रपंच गेला हातीचा| लेश नाहीं परमार्थाचा |
द्वेषी देवां ब्राह्मणाचा| तो येक पढतमूर्ख ||३८||
त्यागावया अवगुण| बोलिलें पढतमूर्खाचें लक्षण |
विचक्षणें नीउन पूर्ण| क्ष्मा केलें पाहिजे ||३९||
परम मूर्खामाजी मूर्ख| जो संसारीं मानी सुख |
या संसारदुःखा ऐसें दुःख| आणीक नाहीं ||४०||
तेंचि पुढें निरूपण| जन्मदुःखाचें लक्षण |
गर्भवास हा दारुण| पुढें निरोपिला ||४१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे पढतमूर्खलक्षणनाम
              समास दहावा ||१०||२. १०

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